"मैं लोगों को नहीं मरवाता। लोगों को मरने में आनंद आता है। इसलिए वे अपने देश अथवा धर्म के निमित्त मरने को तैयार हो जाते हैं।" -मोहनदास करमचंद गांधी, गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ- 160
गांधी अत्यधिक लोकप्रिय एवं विवादास्पद चरित्र रहे हैं, अलबर्ट आइन्स्टाइन ने मानव काया में 'मानवेत्तर मसीहा', टैगोर ने 'महात्मा', तथा राष्ट्र ने 'बापू' या फिर 'राष्ट्रपिता कहा। गांधी आज भी मानव स्मृति में कई रूपों - 'गान्ही बाबा' (मैला आँचल), 'गंधिया' (आधा गाँव)1 - में विद्यमान हैं। और फिर, कई राजनेता तो उन्हें अब गलियाँ भी देते हैं और सरकारी बजट तो उन्हें भूल सा ही गया है। गांधी के विविध रूपों को तुलसीदास की इस उक्ति द्वारा आसानी से समझा जा सकता है, "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।"
ज्ञान का विमर्श, तर्क का विमर्श होता है और समीक्षा का उद्देश्य होता है - पाठ की उलझनों का पर्दाफाश करना। परंतु ऊपर की पंक्तियाँ भाव-प्रवण हैं। इस लगभग अक्षम्य अपराध को शायद यही सोच कर माफ किया जा सकता है कि गांधीवादी विमर्श कई बार अतार्किक हो जाता है। बहरहाल 21वीं सदी के इतिहास के छात्र होने के नाते 'विखंडन' मेरा धर्म है और मैं अपने अस्वीकार्य भावों पर अंकुश लगाने का वैसा ही प्रयास करूँगा, जिसकी आशा गांधी अपने अनुयायी सत्याग्रहियों से करते थे।
गांधी लिखते थे और खूब लिखते थे, जिसका प्रमाण उनके शताधिक संकलनों की स्थूलता है। इन संकलनों में गांधी द्वारा 'यंग इंडिया', 'नवजीवन' जैसी पत्रिकाओं में लिखे लेखों के अलावा पत्राचार, भाषण, अंतर्विक्षाएँ, कांग्रेस कमिटी के प्रस्ताव, पत्र, तार संदेश इत्यादि संकलित हैं। जाहिर है हर संकलन चयन की एक प्रक्रिया से गुजरता है और चयन में एक विचारधारात्मक प्रश्रय तो होता ही है। गांधी वांग्मय स्वाधीनता के बाद की केंद्रीय सरकार के श्रम का नतीजा है, जिसमें गांधीवादी राष्ट्रवाद की मुहर साफ है। यह समीक्षा गांधी वांग्मय के २२वें खंड के पठन पर आधारित है।2 गांधी से जुड़ी दुर्लभ सामग्री का संयोजन श्लाघ्य है, किंतु पाठ की संभावित अनुपस्थितियों (silences) के अलावा एक खास तरह की भूमिका देना पाठ को एक विशेष खाँचे में कैद करना है, पाठकों से एक खास तरह की अपेक्षा रखना है। उदाहरण के तौर पर, "भारत के अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में... वृष्टि छाया की अवधि" कहा है (पृष्ठ, 5)। एक आरोप से शुरुआत होती है, "ठीक उस समय जबकि हमारे संघर्ष की सफलता की लहरें ऊँची से ऊँची उठ रही थी, चौरी-चौरा में भीड़ हिंसा कर बैठी और गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन तत्काल स्थगित कर दिया।"3
निश्चय ही स्वतंत्रता के बाद भारतीय सरकार हिंसा को लेकर उतनी ही शुद्धतावादी है, जितने शायद गांधी कम-से-कम सैद्धांतिक अर्थ में। गांधीवादी राष्ट्रवाद में शुद्धता के महत्व पर हम फिर लौटेंगे, यहाँ इतना संकेत कर देना पर्याप्त होगा कि विभिन्न तरह की उक्तियों के संकलन को एक साथ प्रस्तुत करने की यह महती चेष्टा में एक खास किस्म की चतुराई भी है। विजयी राष्ट्रवाद की इस भूत-दृष्टि ने संकलन के कलेवर पर अपनी खास आधिकारिक मुहर लगाई है।
संकलन के दस्तावेजों की अवधि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की एक महत्वपूर्ण अवधि है। यह भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर गांधी और व्यापक जनाधार वाले गांधीवादी राष्ट्रवाद के आरोहण का काल है।4 गांधी की नजर में खिलाफत-असहयोग का अवसर इतने बड़े पैमाने पर अपने विचारों एवं सिद्धांतों को आजमाने का अवसर है। इस तरह यह "सत्य के प्रयोगों" का एक गहन अवसर है। पीछे मुड़कर देखें तो गांधीवादी विमर्श और राजनीति के लिए यह काल निर्माणात्मक है, जहाँ कई महत्वपूर्ण शब्दों और शैलियों से, जो आगे चलकर राष्ट्रवादी विमर्श का हिस्सा बन जाती है, लगभग पहली बार मुखामुखम होने का पाठक को मौका मिलता है। चूँकि यह आंदोलन का समय है, इसलिए कई दिशाओं में गतिविधियों की सरगर्मी है। संकलन के विभिन्न अंशों को पढ़ने से एक अभूतपूर्व राष्ट्रीय यज्ञ - धर्म-यज्ञ के आयोजन का आभास होता है, जिसमें विभिन्न इलाकों के पुरुष और महिलाएँ यथाशक्ति अपना योगदान करते दिखते हैं।5 यह तब तक चलता रहता है, जब तक चौरी-चौरा की अपवित्रता इसे नष्ट नहीं कर देती! यज्ञ का उद्देश्य है - स्वराज्य, जो निकट भविष्य में प्राप्य था, अब गांधी के हाथों नए मायने एवं नई रचनात्मक दिशा अख्तियार कर लेता है। वैसे पाठ का एक बड़ा हिस्सा स्वराज्य के अर्थों को परिभाषित करने, उसके संबंध में प्रचलित विभ्रमों को साफ करने में लगी गांधीवादी ऊर्जा का गवाह है, जिस पर हम थोड़ी चर्चा आगे करेंगे।
बहरहाल, इस आंदोलन के लिए यज्ञ की उपमा समीचीन लगती है। गांधी की शब्दावली ज्यादातर हिंदू परंपराओं से आती है। उनके मुहावरें, प्रेरणाएँ और उनके दृष्टांत हिंदू-शास्त्रीय ग्रंथों से उद्धृत हैं। 'राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गहरी सहानुभूति' रखने वाले गांधी के एक मित्र ने इसे 'आध्यात्मिक आंदोलन' की संज्ञा दी है।6 गांधी के अपने शब्दों में अहिंसा एक व्रत है।7 खिलाफत एवं गौ-रक्षा की बात एक साँस में कह देना तो इतिहास-प्रसिद्ध तो है ही, गांधीवादी विमर्श में दैवी हस्तक्षेपों का प्राचुर्य है - चाहे वह साहस जुटाने के लिए ईश्वर का आह्वान कर रहे हों या फिर आंदोलन रोकने के लिए इसकी चेतावनी की दुहाई दे रहे हों। बिहार में अछूत-प्रथा के चलते ईश्वर के श्राप का भूकंप का रूप लेना एक विलक्षण गांधीवादी कार्य-कारण संबंध की रचना करता है और इस पर टैगोर को हुई चिढ़ से हम सब परिचित हैं।8 गांधी साथी-सहयोगियों को निरंतर त्याग और तपस्या, बलिदान की प्रेरणा देते हैं। उनके हिसाब से मौत के डर पर विजय अंतिम आदर्श है।9 प्रातः काल उठकर और ऐसी दुघर्ष प्रेरणा के लिए ईश्वर की प्रार्थना वांछित है, "ईश्वर तू मुझे पवित्र बनाए रख। तू मुझे अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए आवश्यक बल दे और ऐसी स्थिति दे जिससे मैं अपने प्राण त्याग कर भी अपनी पवित्रता की रक्षा कर सकूँ। तेरे समान रक्षक होते हुए मुझे भय किसका है?"10
सत्याग्रही का आदर्श कभी पौराणिक प्रह्लाद बनता है तो कभी गीता का 'स्थित-प्रज्ञ' अर्जुन।11 इस अवधि में खास तौर पर गीता गांधी का एक प्रिय ग्रंथ है। वैसे, महज गांधी का क्यों, बंकिम चंद्र12 की 1902 ई. में प्रकाशित 'श्रीमदभगवतगीता' से लेकर तिलक और सहजानंद सरस्वती जैसे तमाम टीकाकारों ने गीता को अपने युगधर्म से जोड़ने की कोशिश की। गीता की यह लोकप्रियता अपने आप में शोध और पड़ताल की माँग करती है। एक अनिश्चित भविष्य की अवधि होते हुए भी योगी की निष्काम तपस्या करने का कृष्ण का उपदेश शायद उस माहौल में एक सहज-सुलभ प्रेरणा स्रोत रहा होगा : 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।' गांधीवादी विमर्श में हालाँकि गीता के आदर्श उटपटाँग मुठभेड़ पैदा करने में सक्षम थे और एक से अधिक बार गांधी को शांति के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी, "मुसलमान और 'गीता' का पारायण करने वाले विद्वान मुझसे कहते हैं कि विशेष अवसरों पर तलवार का उपयोग धर्मानुकूल है और स्वयं कृष्ण भगवान ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया था। मेरे लिए तो अहिंसा ही परम धर्म है। वह आपके लिए भले ही व्यवहार धर्म हो।"13
है न एक 'सनातनी हिंदू' द्वारा गीता की यह जैनी विवेचना! जाहिर है गीता जैसे लोकप्रिय ग्रंथ के लोगों के लिए अलग-अलग मायने हो सकते थे। कई टीकाकारों के लिए गीता ऐतिहासिक दस्तावेज थी। पर गांधी उसे 'धार्मिक कथानक' कहते हैं और महाभारत को वास्तविक युद्ध की कहानी न मानकर 'काव्यात्मक' या 'रूपकात्मक' आख्यान मानते हैं 'मानवता के हृदय के युद्ध का।' इस अंतर-बाह्य विभेद ने गांधी को गीता के "युद्धस्व भारत!" के 'कटु यथार्थ' को नजरंदाज करने में भरपूर सहायता की। उसे रूपक मान लेना भी गीता के गांधीवादी पाठ के लिए अनिवार्य रणनीति थी : इससे गीता की वैकल्पिक विवेचना का द्वार सहज ही खुल जाता है। गांधी ने अन्यत्र कहा है, "गीता कोई सैद्धांतिकी नहीं है, यह एक जीवंत परंतु मूक दिग्दर्शिका है, इसके निर्देशों को ग्रहण करने के लिए हमें धैर्यपूर्ण कोशिश करनी होगी।"14
और इस खंड में, "हमें अपने धर्मग्रंथों से ऐसी चीजों को निकाल देना चाहिए जिनका उद्गम शंकास्पद हो... अपने धर्मग्रंथ को इस तरह से तोड़-मरोड़ कर नहीं पेश करना चाहिए जिससे वे (अछूतों) के खिलाफ पड़े।"15
इस तरह शास्त्रीय ग्रंथों के प्रमाण गांधी के लिए आत्यंतिक नहीं है। अगर उनके निष्कर्ष या दृष्टांत अवांछनीय है तो त्याज्य भी। यहाँ गांधी ने गीता की शास्त्रीयता, प्रामाणिकता एवं पवित्रता सबों पर प्रश्न चिन्ह लगाया और अन्य टीकाकारों से भी ज्यादा स्वतंत्रताएँ पाठ से लीं। परंतु गांधी जैसे घोर आस्तावादी चिंतक-सुधारक-राजनेता के लिए शास्त्रीय ग्रंथों की उपयोगिता अवश्य बनी रहती है। अस्पृश्यता के प्रश्न पर ही वे विट्ठलभाई एवं अन्य प्रतिनिधियों से कहते हैं, "गीता में पाँच वर्णों का नहीं, चार ही वर्णों का उल्लेख है। क्या आप इस पाँचवे वर्ण को चार मूल वर्णों में खपाने के लिए तैयार है।"16
समानता का बर्ताव करने की अपील करते हुए गांधी अपने श्रोता समूह की संभावित प्रतिक्रिया से किंचित डर भी जाते हैं और अपनी स्थिति का खुलासा इन शब्दों में करते है, "आप ऐसा न समझना कि मैं तो एक भ्रष्ट और सुधारवादी मनुष्य हूँ। मैं शुद्ध सनातनी हिंदू के रूप में यह मानता हूँ कि जैसी अस्पृश्यता इस समय बरती जा रही है, हिंदू धर्मशास्त्रों में वैसी अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है।"17 एक आपत्ति इस तरह की आती है, "कुछ लोग कहते हैं कि अस्पृश्यता की प्रतिज्ञा हटा लें, फिर देखें कितने स्वयं सेवक भरती होते हैं।"18
इन उद्धरणों में दो चीजें गौरतलब हैं : पहली पिछली सदी से चलाए जा रहे सुधार आंदोलन (खासकर उनका अस्पृश्यता विरोधी पक्ष), हिंदू असहयोगियों के लिए निषेधात्मकता और अस्वीकार्यता की परिधि में आ गया है और इसलिए गांधी 'सुधारवाद' के 'भ्रष्ट' पथ से अपनी दूरी बनाए रखने का सचेत प्रयास करते हैं। दूसरे, अस्पृश्यता के प्रश्न पर ऐसी आपत्तियाँ करने वालों को करारा जवाब 'नाच न जाने आँगन टेढ़ा'19 के मुहावरे से देते हैं।
स्पष्ट है कि गांधी के लिए अस्पृश्यता का प्रश्न अविभाज्य रूप से स्वराज्य से जुड़ा है और यहाँ वे समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं, "हम अछूतों को छोड़कर स्वराज्य रूपी स्वर्ग में नहीं जा सकते।"20 अब अस्पृश्यता से गांधी का क्या मतलब है और उसके निवारण की कौन सी तरकीबें वे सुझाते हैं? संक्षेप में, "अछूत वे सब हैं जिनका स्पर्श हम अभिमानवश अपने को दूषित कर वाला समझते हैं। इसलिए हमें न केवल उनको छूना चाहिए बल्कि उनकी सेवा करनी चाहिए।"21 गांधी के हिसाब से छुआछूत की समाप्ति के लिए शेष हिंदू समाज को भगीरथ प्रयत्न करने की जरूरत है - तब तक जब तक हम पंचम जाति समाप्त न हो जाय। इस भगीरथ प्रयत्न में वे सेवा की परंपरावादी तरतमता का उलट आदर्श प्रस्तुत करते हैं; अर्थात अंत्यजों की सेवा की जानी चाहिए। हालाँकि ज्यादातर उदाहरणों की स्थितियाँ आपात-स्थितियाँ हैं। यथा, "यदि कोई अछूत बुखार से परेशान है तो मैं उसकी सेवा करूँगा या उसे साँप काट लिया है तो उसके घाव से विष उसी तरह चूसूँगा जैसे यदि मेरे बच्चे को..."22 कुएँ से पानी खींचने का हक तो है, परंतु "साथ-साथ खाने पीने का कोई प्रश्न नहीं है। इसका अर्थ यह है कि यह निषिद्ध नहीं है, परंतु इनका आग्रह नहीं है। इन सैद्धांतिक स्थापनाओं के अलावा गांधी खुद अपनी मिसाल देते हैं की उन्होंने अछूत कन्या को गोद लिया है।23 एक महत्वपूर्ण जिक्र अवश्य आता है अछूतों को जब्त जमीनों के लिए बोली लगाने का एकाधिकार देने का, जिसे गांधी आदर्श विचार मानकर स्वीकार करते हैं, पर यह सुझाव थोड़े समय के लिए, अनस्थायी समाधान के रूप में ही स्वीकृत होता है।
दीगर मुद्दों की तरह गांधी अस्पृश्यता को भी हृदयपरिवर्तन का मसला ही मानते हैं। वे अपेक्षा करते हैं संभ्रांतों से कि वे अपने कुसंस्कारों को त्याग कर मानव गरिमा के अनुरूप व्यवहार करें। गांधी के लिए चतुवर्ण व्यवस्था समस्या-परक नहीं है, अपितु पंचम वर्ण का अस्तित्व कष्टदायक है। गोया पाँच का समीकरण यदि चार में बदल जाए तो शायद समय के इस मोड़ पर गांधी उतने से संतुष्ट होंगे। अन्य हलकों की तरह यहाँ भी गांधी को सामाजिक-संबंधों में सत्ता का खेल नहीं दिखता, उलटे - "भारत के इतिहास में पूँजीपति और श्रमजीवियों के संबंध बुरे नहीं रहे हैं। चार वर्णों की व्यवस्था केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भी की गई और मुसलमान संस्कृति के मिश्रण से उसपर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा है क्योंकि मुसलमान संस्कृति सार रूप से धार्मिक संस्कृति है, अतएव गरीबों के लिए कल्याणकार है।"24
गांधी चीजों की धार्मिकता को उसके सद्गुण का आत्यंतिक प्रमाण मान लेते हैं। औमतौर पर गांधी की कुशाग्र-दृष्टि, जाति-व्यवस्था और धार्मिक परंपराओं की मजबूत दीवारों को भेदने में अक्षम रहती है। यानी कि धर्म गांधीवादी विमर्श की धुरी है। यहाँ धर्म अपने सर्वाधिक, व्यापक और उदात्त अर्थों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सपने धार्मिक मुहावरों में ही मुखर हुए हैं। यथा, स्वराज्य के संघर्ष की सिद्धि रामराज्य है, "इस लड़ाई के अंत में तो रामराज्य स्थापित होने की आशा है। इस लड़ाई के अंत में गरीबों को आश्रय मिलने की आशा है। इस लड़ाई के अंत में स्त्रियों के सुरक्षित होने की उम्मीद है। इस लड़ाई के अंत में भूख से पीड़ितों की भूख दूर होने की उम्मीद है। इस लड़ाई के अंत में कौमों के बीच व्याप्त पारस्परिक द्वेष के कम होने की आशा है। इस लड़ाई के अंत में अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों की अस्पृश्यता मिटने पर उन्हें भी भाई के समान माने जाने की उम्मीद है। इस लड़ाई के अंत में प्राचीन सभ्यता को अपना स्थान मिलने की तथा प्रत्येक घर में कामधेनु-रूपी चरखे के दाखिल किए जाने की उम्मीद है।"25
ऐसा लगता है कि 'स्वराज्य' और 'रामराज्य' लगभग समानार्थक, पर्यायवाची शब्द हैं : एक ही 'यूटोपिया' के दो अलग नाम हैं। यूटोपिया इसलिए कि गांधी की नजर में समाज के दो मुख्य कष्ट, विषमताएँ व विषमताएँ हैं, वे रामराज्य में लुप्त हो जाएँगी। अब 'रामराज्य' उन शब्दों में से एक है जिन्हें गांधी ने समाज (उत्तर भारतीय? हिंदू?) से उठाया और उसमें नए और अनोखे अर्थ भरे। मूल शास्त्रीय संदर्भ शायद रामचरितमानस का ही है। तुलसीदास ने लिखा है - "दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। रामराज्य कबहूँ नहिं व्यापा।" अर्थात रामराज्य एक अतिरंजित, आदर्शीकृत यूटोपियाई स्वप्न के अलावा कुछ भी नहीं। उत्तर भारतीय हिंदू जनमानस में यह स्वप्न अवशिष्ट अर्थ में कल्याणकारी सुशासन के सहज स्वर्णिम आदर्श के रूप में बसता होगा, जिसे गांधी ने असहयोग-खिलाफत के संदर्भ में पुनार्विवेचित किया, इसे फिर से लोकप्रिय बनाया। इस संदर्भ में वे रामराज्य में 'हिंदू-मुस्लिम' एकता के स्वप्न को भी फलीभूत होते देखते हैं। हालाँकि इतिहासकारों ने इसके अलगाववादी दुष्प्रभावों - खासकर मुस्लिम तबकों में - की भी विषद चर्चा एवं आलोचना की है।26 और इस आलोचना में दम है। उग्रपंथी हिंदुओं द्वारा दिसंबर 1992 के बाबरी-मस्जिद ध्वंस की घटना ने हम पर एक बार फिर जाहिर कर दिया है कि दयानिधान 'राम' का इस्तेमाल रौद्र क्रूरताओं के लिए भी संभव है, यदि उनकी छवि दुष्टदलन की बना दी जाय और दुष्ट कौन है। 27
जाहिर है गांधी के राम, संघ-परिवार के रणोद्धत राम नहीं हैं - वे 'मर्यादापुरुषोत्तम ही हैं। वैसे अपने-अपने राम तो होते ही हैं, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए - खासकर मुसलमानों - राम से जुड़ाव उतना आसन नहीं हो, नैसर्गिक तो एकदम नहीं। ऐसी स्थिति में अलगाव का होना ज्यादा तर्कसंगत लगता है। गांधी विश्वास-बहुल भारतीय समाज में अंतर के इस तत्व से अपरिचित नहीं हैं। उनका प्रसिद्ध वाक्य - 'खिलाफत हिंदुओं की गाय है'- इस अंतर की पहचान का प्रमाण है। पर शब्दों के सामाजिक संदर्भ होते हैं, उनके खास समाज-विशिष्ट ध्वन्यार्थ होते हैं। अब 'गाय' और 'गो-रक्षा' को ही ले लें। यह शब्द उतना आसन नहीं है जितना कि गाय से जुड़ी साधारण छवि। गाय का एक गांधी-पूर्व संदर्भ भी है। उत्तर भारत के कई इलाकों में 19वीं सदी के आखिरी दो दशकों से गाय के इर्द-गिर्द गौरक्षिणी सभाओं के अभियान और हिंदू-मुस्लिम दंगों का इतिहास है। ऐसे संघर्षप्रद मुद्दों का सामाजिक अर्थ गांधी द्वारा प्रयुक्त कर लेने भर से निर्दोष, निष्कलुष या निरपेक्ष नहीं हो जाता। अतः इस संदर्भ में राष्ट्र के लिए लामबंदी हेतु गांधी का खास किस्म के प्रतीक-चयन और प्रतीक-संयोजन के निषेधात्मक पक्षों पर हाल के इतिहासकारों का मत महज अनुमानात्मक नहीं है।
गांधी को इस तरह की आलोचनाओं का अंदेशा है। अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि धर्म, राजनीति, समाज ये सब एक दूसरे से अलग-थलग खाने नहीं हैं - 'एक की दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है।' साथ ही उनका दृढ़ विश्वास है, "हिंदू मुसलमानों की एक बहुत बड़ी संख्या इस युद्ध को धार्मिक समझकर इसमें शामिल हुई है। जनता इसमें इसलिए शरीक हुई है कि वे खिलाफत और गाय की रक्षा करना चाहती है। मुसलमानों को खिलाफत की सहयोग की आशा से वंचित कर दीजिए, बस वे कांग्रेस के पास भी नहीं फटकेंगे। हिंदुओं से कहिए कि आप कांग्रेस में रहकर गो-रक्षा नहीं कर सकते - एक भी हिंदू उसमें न टिकेगा।"28
स्वराज्य और खिलाफत आदि पर हँसने वालों का जबाव देते हुए यहाँ गांधी लगभग मजबूर से दीखते हैं। मानो कह रहे हों, "मैं क्या करूँ, हमारी जनता ही ऐसी धार्मिक है कि वह हर चीज को धार्मिक चश्मे से ही देखेगी। अतः धार्मिक प्रतीक अनिवार्य है।"
यहाँ एक टेढ़ा प्रश्न पैदा हो जाता है कि भारतीय जनता ही धार्मिक है अथवा गांधी अपनी ही विश्व-दृष्टि का सामान्यीकरण कर रहे हैं, उसे जनता पर थोप रहे हैं? इस दुविधाजनक प्रश्न का महत्व है, चूँकि इस खंड में गांधी इसी किस्म का सामान्यीकरण करते हैं, "न ही कोई चौरी-चौरा के पागल लोगों का अनुसरण करेगा। यह हिंदुस्तान का स्वभाव नहीं है, यह तो रोग है। टर्की की बात अलग है; वहाँ मुस्तफा कमाल पाशा की तलवार चलती है क्योंकि प्रत्येक तुर्क की रग-रग में ताकत है। तुर्क सैकड़ों वर्षों से लड़ते चले आ रहे हैं। हिंदुस्तान की जनता हजारों वर्षों से शांत रही है।"29
बहुत नरमी से कहा जाय तो यह वक्तव्य अनैतिहासिक है - 'हिंदुस्तान' और 'तुर्की' स्वाभाव के बारे में हैरतंगेज सरलीकरण! और प्राच्यवादी (Orientalist) विमर्श30 के कोरे उलट की तलाश में प्राच्यवाद का ही शिकार! इस तरह हमारा प्रश्न - भारतीय जनता स्वभावतः धार्मिक है या गांधी ऐसा मान लेते हैं - और पेचीदा हो जाता है। भारतीय जनता 'स्वभावतः धार्मिक' थी या नहीं, कहा नहीं जा सकता, लेकिन गांधी की विश्वदृष्टि में धर्म का केंद्रीय महत्व है, यह असंदिग्ध है। इस खंड में धर्म की नैसर्गिक अच्छाई को बार-बार रेखांकित किया गया है (जैसे मुसलमान संस्कृति सार-रूप में धार्मिक संस्कृति है, अतएव गरीबों के लिए कल्याणकार है)।31
लेकिन व्यवहारिक राजनीतिक रंगमंच पर तो धर्म हर तरह के नाटक खेलकर गांधी को हैरत में डाल देता है। ज्ञानेंद्र पांडेय ने गांधी के ऐसे ही ऊहापोह के क्षण का विश्लेषण किया है। राष्ट्रवादी लामबंदी के लिए समुदाय को अपरिहार्य मानने वाले गांधी, सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में राष्ट्र और समुदाय (धर्म-आधारित) में एक तारतम्यता तय करते हुए देखे जा सकते हैं - बहादुर [अली] बंधु दृढ़ राष्ट्रप्रेमी हैं, लेकिन पहले वे मुसलमान हैं और बाद में कुछ और। (21 सितंबर, 1921)
राष्ट्रीयता, सांप्रदायिकता से बड़ी चीज है। इस मानी में हम लोग पहले भारतीय हैं और पीछे हिंदू, मुसलमान, पारसी और इसाई हैं। (26 जनवरी, 1922)32
ज्ञानेंद्र पांडेय इन दो उक्तियों में विरोध दर्ज करते है, जो सही है। पर, इस खंड से एक और उद्धरण प्रस्तुत किया जा सकता है यह साबित करने के लिए कि मापला विद्रोह का प्रभाव गांधी पर चिरस्थायी नहीं रहा। एक प्रसंग में तो वे यह कहते है, "यदि कोई मुसलमान हिंदू के ऊपर या हिंदू-मुसलमान के ऊपर अत्याचार करता है। वह अत्याचार एक भारतीय द्वारा दूसरे भारतीय पर समझना चाहिए..."33 लेकिन दूसरे प्रसंग में वे अपनी मूल स्थिति को उचित ठहराते हुए यह कहते हैं, "जब मैं यह कहता हूँ कि मैं अपने देश से अधिक अपने धर्म को महत्व देता हूँ और इसलिए मैं पहले एक हिंदू हूँ और बाद में राष्ट्रवादी तो एक माने में निश्चय ही यह कथन सत्य है। लेकिन केवल इसी कारण मैं किसी सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रवादी से कम राष्ट्रवादी नहीं हो जाता। इससे मेरा अभिप्राय केवल यह है कि मेरे देश के हित मेरे धर्म के हितों के अनुरूप है।"34
निष्कर्ष यह कि धर्म पहले या देश की दुविधा गांधी की स्थायी दुविधा नहीं है और इस दुविधा का समाधान वे विलक्षण ढंग से करते हैं जहाँ देश और धर्म - कम से कम उनके देश और उनके धर्म - में कोई विरोधाभास नहीं रह जाता। यहाँ गांधीवादी शैली की आम खासियत एक बार फिर स्पष्ट हो जाता है और यह खासियत है किसी एक शब्द को उठाकर उसे भानुमती का पिटारा बना देना - एक-एक शब्द जैसे अर्थों का भंडार हो, अपनी श्रद्धा और सुविधा के मुताबिक जो जँचे लेते जाइए। 'स्वराज्य' और 'रामराज्य' का सर्वग्राहीपण हम ऊपर देख चुके हैं। उसी तरह वे चरखे को एक जगह कर्मयोग35 बताते हैं तो दूसरी जगह कामधेनु36 और धर्म तो खैर 'इनसाइक्लोपीडिया' है ही - लगभग उसी तरह का जैसा कि मार्क्स के अनुसार पूँजीवाद के पूर्व योरोप में।
अतः बात चाहे राजनीतिक समुदाय को रचने का हो या अछूतोद्धार की या फिर महिला मुक्ति की - बात कहीं से भी शुरू हो उसे खत्म धर्म पर ही होना है। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं के प्रवेश में गांधी के प्रोत्साहन और उसकी सफलता सर्वविदित है। वे महिलाओं को इस शांतिपूर्ण संघर्ष में पुरुषों से भी बेहतर शांति सैनिक मानते हैं, "वे अपनी धार्मिक निष्ठा में पुरुषों से भी बढ़कर हैं, नारी जाति मूक तथा गंभीर सहिष्णुता की प्रतीक हैं।"37 इन तथाकथित गुणों के अलावा गांधी पवित्रता एवं सतीत्व का भी आदर्शीकरण करते हैं। पवित्रता का प्रश्न स्त्रियों द्वारा समाज के सार्वजानिक हलकों में आगमन के पश्चात थोड़ा मुश्किल बन जाता है और गांधी को स्त्रियों की पवित्रता को लेकर उठी शंकाओं का समाधान करना पड़ता है, "जिस स्त्री को अपनी पवित्रता का ख्याल है उस पर बलात्कार करने वाला पुरुष न आज तक पैदा हुआ है और न होगा ही। यहाँ यह बात सच है कि प्रत्येक स्त्री में इतनी पवित्रता का योगबल नहीं है।"38 हालाँकि वे इस स्थिति के लिए पुरुषों के द्वारा दी गई कुशिक्षा को ही जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन अंततः उनका समाधान ईश्वर की प्रार्थना से उपजे तेज में है। इसी संदर्भ में वे कहते हैं, "स्त्री में अपनी रक्षा की पर्याप्त शक्ति है। जो स्त्री दुख के समय भगवान को याद करेगी उसकी रक्षा वह अवश्य करेगा। जो स्त्री मरने के लिए तैयार है, उसे कोई दुष्ट एक शब्द भी कह सकता है? उसकी आँखों में इतना तेज होगा कि उसको देख कर सामने खड़े व्यभिचारी पुरुष के होश गुम हो जाएँगे।"39
लेकिन अगर इस तरह का हादसा हो जाए तो? अद्भुत गांधीवादी समाधान प्रस्तुत है, "जब कोई पुरुष किसी स्त्री को अपवित्र करने का प्रयत्न करता है तो दोनों को आत्म-हत्या कर लेने का हक है - इतना ही नहीं, तब आत्मघात करना दोनों का कर्तव्य है।"40
स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष संबंधों में भी गांधी को सत्ता के खेल की पहचान नहीं, पुरुषवादी समाज, पितृसत्तात्मक वर्चस्व का छोटा-सा संकेत भी यहाँ नहीं मिलता। गांधी सिर्फ महिलाओं के बलिदान, सहिष्णुता एवं पवित्रता के सद्गुणों का उदात्तीकरण करते हैं, जो शक्ति के लिए संघर्षरत आज की नारीवादियों को अतार्किक और अपच लगे। कुल मिलाकर गांधी में धर्म की सत्ता सर्वोच्च है। हालाँकि यह गांधी का अपना धर्म है। अपने निष्कर्षों के समक्ष वे शास्त्रीय संदर्भो को भी चुनती दे सकते हैं, लेकिन चुनौती देने के लिए जो बिंब-विधान रचेंगे, वह भी धर्म के अंदर से ही आएगा - विशेष कर तथाकथित हिंदू धार्मिक परंपरा से। आश्चर्य की बात नहीं कि मुस्लिम लीग के नेताओं को गांधी को हिंदुओं का नेता सिद्ध करने में सफलता मिलती है और दूसरी ओर कट्टर हिंदूवादी, गांधी के वर्चस्व काल में ज्यादा फल-फूल नहीं पाते।
हालाँकि किसी एक खंड की सामग्री के आधार पर इस तरह का सामान्यीकरण शायद अनुचित हो, लेकिन यह पाठ (Text) ऐसे चिंतन के लिए प्रस्थान बिंदु तो हो ही सकता है।
संदर्भ
1. रेणु, फणीश्वरनाथ, 'मैला आँचल", दिल्ली, 1954, एवं रज़ा, राही मासूम कृत 'आधा गाँव, दिल्ली, 1966
2. इस संकलन में गांधी के 15 दिसंबर 1921 से 3 मार्च 1922 तक के लेखन और अंतर्विक्षा को संकलित किया गया है
3. भूमिका, संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 5. चौरी-चौरा के वैकल्पिक मायने भी हैं इस विषय पर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के लिए देखें, अमीन शाहिद, 'इवेंट, मेटाफर, मेमोर, चौरी-चौरा, 1922-23, ऑ.यू.प्रे. 1995
4. देखें, सरकार, सुमित, आधुनिक भारत
5. यह प्रवृत्ति इसी रूप में राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन का भी धर्म हो जाता है. देखें, अमीन, शाहिद, "एग्रेरियन बेसेस ऑफ नेशनलिस्ट एजिटेसन इन इंडिया : एन हिस्टोरियोग्राफिकल सर्वे." यह लेख लो, डी.ए. संपादित पुस्तक 'दि इंडियन नेशनल कांग्रेस; सेंटेनरी हाइंड साईट, दिल्ली, 1986 में संकलित है।
6. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 278
7. वही, पृष्ठ 172
8. देखें, चटर्जी, पार्था, नेशनलिस्ट थॉट एंड दि कोलोनियल वर्ल्ड
9. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 53
10. वही, पृष्ठ 199
11. वही, पृष्ठ 287, 301
12. देखें, सरकार, तनिका, "इमैजिनिंग हिंदू राष्ट्र : द हिंदू एंड द मुस्लिम इन बंकिम चंद्र'स राइटटिंग्स", यह लेख लडेन डेविड संपादित 'मेकिंग इंडिया हिंदू' में संकलित है।
13. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 307
14. देखें, चटर्जी, पार्था, नेशनलिस्ट थॉट एंड दि कोलोनियल वर्ल्ड, पृष्ठ 94-95
15. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 301
16. वही, पृष्ठ 306
17. वही, पृष्ठ 307
18. वही, पृष्ठ 289
19. वही, पृष्ठ 289
20. वही, पृष्ठ 289
21. वही, पृष्ठ 124
22. वही, पृष्ठ 124
23. वही, पृष्ठ 331
24. वही, पृष्ठ 484
25. वही, पृष्ठ 184
26. देखें, बिपन चंद्र, कम्युनलिज्म इन मॉडर्न इंडिया', तथा पांडेय, ज्ञानेंद्र, कंस्ट्रक्शन ऑफ कम्युनलिज्म इन कोलोनियल नार्थ इंडिया
27. देखें, बासु तपन आदि, खाकी शॉर्ट्स, सैफरन फलैग्स, ओरिएंटल लौंगमैन, नई दिल्ली, 1993
28. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 516
29. वही, पृष्ठ 449
30. प्राच्यवादी विमर्श हेतु देखें, सईद एडवर्ड कृत, 'ओरिएनटलिज़्म'
31. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 484
32. पांडेय, ज्ञानेंद्र, कंस्ट्रक्शन ऑफ कम्युनलिज्म इन कोलोनियल नार्थ इंडिया, पृष्ठ 233
33. संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 283
34. वही, पृष्ठ 487
35. वही, पृष्ठ 459
36. वही, पृष्ठ 194
37. वही, पृष्ठ 23
38. वही, पृष्ठ 198
39. वही, पृष्ठ 199
40. वही, पृष्ठ 199